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आरक्षण के चुनावी नारों के लिए सुप्रीम कोर्ट की चौखट बड़ी चुनौती, दलीलें नकारती रही हैं अदालत

सुप्रीम कोर्ट कई मौकों पर आरक्षण पर दलीलों को नकारता रहा है। कांग्रेस ने एलान किया है कि सत्ता में आने पर 50 फीसदी सीमा को तोड़ कर आबादी के हिसाब से आरक्षण तय किया जाएगा। अदालत ने जाटों को नौ राज्यों में केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण देने वाली अधिसूचना इसी आधार पर रद्द कर दी थी।

माला दीक्षित, नई दिल्ली। जाति आधारित गणना के बाद जिसकी जितनी आबादी उतनी हिस्सेदारी तथा 50 फीसदी आरक्षण की सीमा तोड़ने को राजनाति तेज हो गई है। कांग्रेस ने तो ऐलान कर दिया है कि सत्ता में आए तो 50 फीसदी सीमा को तोड़ कर आबादी के हिसाब से आरक्षण तय किया जाएगा, लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस के काल में ही सुप्रीम कोर्ट ऐसी दलीलों को लगातार नकारता रहा है।

कई फैसलों मे सुप्रीम कोर्ट दोहरा चुका है कि आरक्षण देने के लिए यह साबित करना होगा कि संबंधित जाति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी है और उसका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने के बारे में आंकड़े जुटाने की बात इन्द्रा साहनी, एम नागराज से लेकर आज तक आए सभी फैसलों में सुप्रीम कोर्ट दोहराता रहा है और कई राज्यों के आरक्षण कानून इसी आधार पर कोर्ट से रद्द हो चुके हैं।

मराठा आरक्षण को भी नहीं मिली मंजूरी

50 फीसदी सीमा को लेकर भी बार-बार सुप्रीम कोर्ट अड़ा रहा है और इसी आधार पर मराठा आरक्षण को भी मंजूरी नहीं मिली। वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को नौ राज्यों में केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण देने वाली अधिसूचना इसी आधार पर रद्द कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को पिछड़े वर्ग की केंद्रीय सूची में शामिल करने से असहमति जताते हुए अपने फैसले में कहा था कि आंकड़े एक दशक पुराने हैं, इनके आधार पर पिछड़ेपन का आकलन नहीं किया जा सकता। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि राजनीतिक रूप से संगठित जाटों को पिछड़े वर्ग की सूची में सिर्फ इस आधार पर शामिल नहीं किया जा सकता कि उनसे बेहतर स्थिति वाले लोग इसमें शामिल हैं, यह कहते हुए जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस आरएफ नारिमन की पीठ ने संप्रग सरकार द्वारा जारी जाटों को आरक्षण देने वाली 4 मार्च 2014 की अधिसूचना रद कर दी थी।

केंद्र सरकार ने दिया था नौ राज्यों में आरक्षण

इस अधिसूचना से केंद्र सरकार ने नौ राज्यों बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान के धौलपुर और भरतपुर जिले और उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड के जाटों को केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण दिया था। प्रतिनिधित्व अपर्याप्त होने के आंकड़े भी जुटाने होंगे। अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े तो एससी एसटी वर्ग को प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए भी जुटाने जरूरी हैं।

प्रमोशन में आरक्षण का मामला

28 जनवरी 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में दिये फैसले में कहा था कि प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाना जरूरी है और साथ ही इसकी समय समय पर समीक्षा भी होनी चाहिए। जस्टिस एल नागेश्वर राव, संजीव खन्ना और बीआर गवई की पीठ ने इस फैसला दिया था। प्रोन्नति में आरक्षण के मामले विभिन्न राज्यों की अपीलें अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।

क्यों रद्द हुआ था मराठा आरक्षण?

केंद्र सरकार ने 50 फीसदी की सीमा के उपर सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए 10 फीसद आरक्षण का फैसला किया था और वह सिर्फ इसलिए न्यायिक समीक्षा के बाद भी टिका रहा, क्योंकि शैक्षणिक संस्थानों में अलग से 10 फीसद सीटें बढ़ा दी गई थीं। इसके उलट महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग को सुप्रीम कोर्ट फीसदी की सीमा को लांघने के आधार पर रद्द किया था। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पचास फीसदी की सीमा पार करने पर विस्तृत रूप से विचार किया है। वह एक ऐसा मामला था जिसमें ज्यादातर राज्य सरकारों ने एक सुर में आरक्षण की पचास फीसदी अधिकतम की सीमा तय करने के इंद्रा साहनी व अन्य फैसलों में दी गई व्यवस्था पर पुनर्विचार की मांग की थी। ये भी दलीलें दी गईं थीं कि पचास फीसदी की सीमा अंतिम नहीं है और विशेष परिस्थितयों में उसे पार किया जा सकता है। इन दोनों ही बिन्दुओं पर सुप्रीम कोर्ट ने गहन विश्लेषण करने के बाद मराठा आरक्षण रद्द किया था।

मराठा आरक्षण रद्द करने का फैसला पांच मई 2021 को पांच जजों की संविधान पीठ ने दिया था, जिसमें आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा को लांघना असंवैधानिक घोषित किया था। यानी जैसा कांग्रेस या कुछ अन्य दल कह रहे हैं, वैसे ही कोई राज्य विशिष्ट परिस्थितियां बताते हुए आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा लांघता है तो उसे कोर्ट की कड़ी जांच से गुजरना होगा जो आसान काम नहीं है क्योंकि मराठा आरक्षण के मामले में कोर्ट ने ऐसी सभी दलीलें खारिज कर दीं थीं। इंद्रा साहनी फैसले के पहले पांच जजों की पीठ ने एमआर बालाजी के मामले में दिए फैसले में कहा था कि आरक्षण के विशेष प्रावधान पचास फीसद से कम होने चाहिए और ये 50 फीसद कैसे होगा ये प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। एम नागराज के फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसद की सीमा की बात दोहराई थी।

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